आग और पानी में यारी करा रहा,
चाँद से सूरज के गले लगा रहा।
मुट्ठी भर भरकर उछालता हूँ ऐसे,
वसुधा को आसमां से ऊपर उठा रहा॥
है हौसला समुन्दर पीने का भी,
धक्के दे देकर पर्वत हिला रहा।
दूर जा बैठा जो सहम कर खुदा,
लड़ते लोगो को उसका अक्श दिखा रहा॥
जुगनुओं की चमक दिन में भी देखेंगे अब,
रात को कुछ इस तरह दीपक डरा रहा।
जड़ें इतनी जमा दी बरगदों की जमीं पर,
बवंडरों को अपनी ही शाखों पर झुला रहा॥
कुछ बदला, कुछ बदलेगा, कुछ बदलना चाहिए,
एक् और एक् ग्यारह का पहाडा बना रहा।
बूँद बूँद गिराकर सिलवटें तोड़ता निर्झर,
हुंकारे भर भरकर शिलाएं बहा रहा॥
रेगिस्तां में तितलियाँ उडे इतनी आजाद,
रेत की रेत से ही मिटटी बना रहा।
रकीब और आईने की दोस्ती मैंने तोड़ दी,
क्रांति से शान्ति का ज़माना ला रहा॥
~!दीपक
२३ सितम्बर २००८
Tuesday, September 23, 2008
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