Friday, January 30, 2009

अब हम बड़े, पढ़े-लिखे जिम्मेदार हो गए...

अब हम बड़े, पढ़े-लिखे जिम्मेदार हो गए...
अपनत्व-प्यार से नही, दुनिया से चार हो गए...
छोटी छोटी बातों का ख्याल रखा करते है...
खिलखिलाते नही, मंद मुस्कराहट के सरकार हो गए...

अब हम में डर घर कर गया, और हम दुनिया.. के हो गए...
हर चीज़ का मर्म जानते है, कहा ना कि, समझदार हो गए...
दिल ही दिल में जिंदगी को दबाना जो सीख लिया...
धडकनों की आवाज़ सुनने वाले तो, डॉक्टर हो गए...

जब ख़ुद के लिए ही फुर्सत के नही चंद लम्हे...
बिना काम के मिले हजूर, आप कब से मिलनसार हो गए...

~!दीपक
३० जनवरी २००९

बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर में ,

बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर में ,
हर चीज़ अब बदली बदली नज़र आती है..

मुझे देख जो खिलखिला पड़ता था,
बेहिचक बिन बंधन भगा ले जा पड़ता था...
कहीं अकेले में, अटारी पर, छत पर बातें करता था...
साथ रहता था, किसी से मिलने ना देता था...

अट्टू खेला, लंगडी खिलाई, ताश की महफिल सजाई...
हार जीत की बात कहाँ, बस थी तो मनाई-रुठाई...

मैं बोलता जो किसी से, उसके होंठ बुदबुदाते थे,
मैं हंस कर देखता, वो त्योंरीयां चढाते थे ...
मेरी दाल में नोन, सब्जी में मिर्ची हुआ करती थी ,
और उसको ही पानी का गिलास, गुड की ढिलिया मिला करती थी ...

छुप छुपाते देर रात तक चाँद-तारे निहारना ,
और उनींदे सुबह सुबह पानी भरने जाना ,
वो अमराई की मस्ती के लिए, लोगो को बहलाना
और कुछ ना सूझे तो, मन्दिर ही ले जाना

आज जब आया हूँ, तो उसकी खामोशी ही सुन पाया
या कहीं दूर से, मुरझाई छवि ही देख पाया

थोडी हिचकिचाहट के साथ वो नमस्कार कर चला गया ..
और इन आंखों में बसे वो फीके रंग, फ़िर भर गया ..

दिल में इक टीस उठी, सारा फरक समझ में आया...
मैं दूर रहकर भी अपना हुआ, वो साथ रहकर पराया ..
भौतिकता जब संबंधो की सीढी बन जाती है...
निश्छल हार्दिक रिश्तों की ये, पीढा बन जाती है...

अब हम लोगो में आज इक यही बहुत बड़ा अन्तर है...
मैं कही दूर बैठ, पुराने पन्नो को पलटता हूँ, जोड़ता हूँ
और वो इक इक करके, फाड़ता चला जाता है ...
हवा में उडा उडा कर ,
मुझसे भी आगे ....मुझसे भी दूर...जाना चाहता है...

~!दीपक
३० जनवरी २००९

इक सूखे दरख्त का दर्द बस इतना ही है

छोटी पर संपूर्ण लगती हैं....कुछ आगे लिख ही नही पाया...

कभी कभी वो मुझे, यू भी बुलाते रहे...
जैसे शुष्क आंखों में नमी की, दरकार मुझसे थी...
और कभी कभी वो मुझसे यू भी छुपाते रहे...
जैसे खारी झीलों में बरबस, बरसात मुझसे थी...
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इक सूखे दरख्त का दर्द बस इतना ही है...
कि कोई पंछी अब उस पर, घर बनाता नही...
हरे भरे दरख्तों से बस जलन इतनी ही है...
कि पतझड़ भी अब, सालों साल आता नही...
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किलकारियां जब गूंजती है, संगीत कौन सुनता है
मासूमियत जब मिलती है, इंसानियत कौन चुनता है...
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जो आगाज़ किए बिना ही, अंजाम की बात करते है...
ऐसे नादां दोस्त मुझे, परेशान किया करते है ..

~!दीपक
शायरी २००८

इश्क की बात आशिक ही करता है...

इश्क के कुछ दुष्परिणाम....ना करो फिर भी आशिक तो बना ही देता है...


मैं तो इश्क का मर्ज़ बता रहा था ...
लोगो ने मुझे ही आशिक समझ लिया ...

फ़िर समझ आया,प्यार तो चंदन है ,
वो महक उठा, जिसने कर लिया...
और महका दिया उसे, जो किनारे हो लिया ...

इश्क की बात आशिक ही करता है...
सनम की बातें करने वाला, दीवाना हो लिया...

~!दीपक
११ दिसम्बर २००८

तुम दूर हो मुझसे मेरी यादों से नही

तुम दूर हो मुझसे मेरी यादों से नही..
यूँ ही नही रात भर मुझे सताते हो तुम...

गर रूठ ही जाते, तो इस कदर ना रूठते ...
कि मुझे सुला जाते और कभी ना जगाते तुम ...

इक चाह तुझे भी होगी, कि मना लाऊ तुझे ...
कि खिलखिलाते हुए, यूँ ही रुआंसे ना हो जाते तुम ..

दूर कितना ही करलो, पास ही पाओगे मुझे...
जितना दूर जाते हो, उतना ही लौट आते हो तुम...

कब तक ख़ुद को तन्हा समझाते रहोगे ...
ख़ुद ही तो बात अपनी, सुन नही पाते जो तुम ...


~!दीपक
२३-१२-२००८