कोई समझा दे उस पगली को,
अलग थलग जो चलती है,
कि बिन दीपक - ज्योति भी,
दावानल सी जलती है....
बहारों से सजे तरु मंडल,
पंछी कलरव से गूंजते हैं,
कि उखड जाते एक पल मे,
नींव जो तल से हिलती है...
असीम सिंधु राशि से,
साहिल कहीं तो मिलते हैं,
कि उछल कूद करती सरिता,
बिन तट के ना बहती है...
यूं ही किसी ऊंचाई को,
आयाम नही मिलते हैं,
कि बिन डोर कभी पतंग,
आसमां मे ना उड़ती है ...
जो कोशिश करो जाने की,
जिंदगी - मौत बनती है,
कि इस चराचर जगत मे,
रूह जिस्म मे रहती है....
~!दीपक
२२-०१-२००८
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