Thursday, July 23, 2009

जिनका अता-पता भी ना था कभी कहीं

जिनका अता-पता भी ना था कभी कहीं..
ढूंढते आ पहुचे है अनायास वो गली-गली...

हम तो मशरूफ रहे, मुफलिसी में अपनी
बातें क्या सुनाई देती, हमको जली-जली

आज पैमाना फिर टूटा, उफ़, ये मदहोशी
समझा कुछ नहीं, उसने कही जो खरी-खरी

क्यों लोगो को उलझन है, ये पता नहीं
हमसे कैसे जायेगी, इज्ज़त हो भली-भली

यूँ तो दिखती है, राहें हर तरफ खुली
कैसे बंद हो जाती है, उनकी गली-गली..

हम तो पतझड़ के रंगों को समझे नहीं
शाखों को फूल-पत्तियां मुबारक हो हरी-भरी

अब जो बिसरूंगा, दुनिया में अपनी
नेकदिली अपनी, सम्हाले रखो धुली-धुली

~!दीपक
२३-जुलाई-०९