जिनका अता-पता भी ना था कभी कहीं..
ढूंढते आ पहुचे है अनायास वो गली-गली...
हम तो मशरूफ रहे, मुफलिसी में अपनी
बातें क्या सुनाई देती, हमको जली-जली
आज पैमाना फिर टूटा, उफ़, ये मदहोशी
समझा कुछ नहीं, उसने कही जो खरी-खरी
क्यों लोगो को उलझन है, ये पता नहीं
हमसे कैसे जायेगी, इज्ज़त हो भली-भली
यूँ तो दिखती है, राहें हर तरफ खुली
कैसे बंद हो जाती है, उनकी गली-गली..
हम तो पतझड़ के रंगों को समझे नहीं
शाखों को फूल-पत्तियां मुबारक हो हरी-भरी
अब जो बिसरूंगा, दुनिया में अपनी
नेकदिली अपनी, सम्हाले रखो धुली-धुली
~!दीपक
२३-जुलाई-०९
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