धूमिल होती आशाओं को
सपना सुनहला दिखलाने...
कहाँ से आये मन रसिया
मलय गंध बिखराने..
तपती हुई मरू भूमि में
मृग-तृष्णा से तरसाती
प्रखर सूर्य की ओजस्वी
किरणों से टकराने..
ऐसा क्या है तुम में
अम्बर पर छा जाते हो
पीयूष की निर्मल बूंदे
सप्तरंग दिखलाने...
बेहाल बदरंग जिंदगी
सजग हो जाती है
झूमती गाती संवर जाती
तड़ित नृत्य दिखलाने..
कहो..कौन हो तुम,
कहाँ से आते हो..
निर्जीव होती धरा को
अमृत गान सुनाने...
~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०
Friday, April 30, 2010
Thursday, April 29, 2010
मेघ तुम क्यूँ आये....
मेघ तुम क्यूँ आये....
आक्रोश कुछ तपने तो दिया होता.
दलदल सा जीवन फटने तो दिया होता..
हरी भरी खुशियों को पकने तो दिया होता!!!
यूँ चले आना तुम्हारा..अकस्मात्
षड़यंत्र कोई गहरा सा लगता है
कौतुहल से भरा संदेशा लगता है
क्रांति सा कोई अचम्भा लगता है
प्रियतमा की तड़प लगती है
पपीहे की चहक लगती है
गर्म लू से हिलती डंठलों को
आषाढ़ की झलक लगती है
कुटिया में वैभव शोभा नहीं देता
महर्षि-अप्सराओं का संगम ना दिखलाओ..
सच्चे मन से पूछता हूँ...
यूँ चले आने का कारण तो बतलाओ...
ये सच है प्रार्थना बहुत की है प्रभु से
पर ऐसी कृपादृष्टि अनायास नहीं होती
संघर्षरत हूँ, यूँ मन ना बहलाओ
कुछ क्षणों की ख़ुशी का रहस्य समझाओ..
मेघ तुम क्यूँ आये..सावन अभी दूर है
मै चला आऊंगा, संशय में ना रहो
मै तपता हुआ पुंज हूँ, सावन खींच लाऊंगा
तुम धमाधम बरसने की तैयारियों में रहो...
~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०
आक्रोश कुछ तपने तो दिया होता.
दलदल सा जीवन फटने तो दिया होता..
हरी भरी खुशियों को पकने तो दिया होता!!!
यूँ चले आना तुम्हारा..अकस्मात्
षड़यंत्र कोई गहरा सा लगता है
कौतुहल से भरा संदेशा लगता है
क्रांति सा कोई अचम्भा लगता है
प्रियतमा की तड़प लगती है
पपीहे की चहक लगती है
गर्म लू से हिलती डंठलों को
आषाढ़ की झलक लगती है
कुटिया में वैभव शोभा नहीं देता
महर्षि-अप्सराओं का संगम ना दिखलाओ..
सच्चे मन से पूछता हूँ...
यूँ चले आने का कारण तो बतलाओ...
ये सच है प्रार्थना बहुत की है प्रभु से
पर ऐसी कृपादृष्टि अनायास नहीं होती
संघर्षरत हूँ, यूँ मन ना बहलाओ
कुछ क्षणों की ख़ुशी का रहस्य समझाओ..
मेघ तुम क्यूँ आये..सावन अभी दूर है
मै चला आऊंगा, संशय में ना रहो
मै तपता हुआ पुंज हूँ, सावन खींच लाऊंगा
तुम धमाधम बरसने की तैयारियों में रहो...
~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०
यूँ अकस्मात् मेघ घिर आये
यूँ अकस्मात् मेघ घिर आये
मेरे तो जैसे पर निकल आये
उड़ने को बेताब मेरी उमंगें
उडती हुईं सामने नज़र आये
सूरज की तपिश खो गयी
ठंडी बौछारे जिधर आये
पंछी गा रहे..मंद-मंद
शीतल पवन गुज़र आये
यूँ स्वतन्त्र लगता है मन
बचपन के दिन फिर आये
उड़ता ही, बहता ही जाता है
अल्हड कोई निर्झर आये
जेठ की दुपहरी में सावन
धरा को यूँ गुलाल लगाये
झूमते इन हरियालों में
कुसुमित पल्लव निखर आये
कुछ चाहने का मन क्यों करे
यूँ अकस्मात् जब ...मेघ घिर आये
~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०
मेरे तो जैसे पर निकल आये
उड़ने को बेताब मेरी उमंगें
उडती हुईं सामने नज़र आये
सूरज की तपिश खो गयी
ठंडी बौछारे जिधर आये
पंछी गा रहे..मंद-मंद
शीतल पवन गुज़र आये
यूँ स्वतन्त्र लगता है मन
बचपन के दिन फिर आये
उड़ता ही, बहता ही जाता है
अल्हड कोई निर्झर आये
जेठ की दुपहरी में सावन
धरा को यूँ गुलाल लगाये
झूमते इन हरियालों में
कुसुमित पल्लव निखर आये
कुछ चाहने का मन क्यों करे
यूँ अकस्मात् जब ...मेघ घिर आये
~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०
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