धूमिल होती आशाओं को
सपना सुनहला दिखलाने...
कहाँ से आये मन रसिया
मलय गंध बिखराने..
तपती हुई मरू भूमि में
मृग-तृष्णा से तरसाती
प्रखर सूर्य की ओजस्वी
किरणों से टकराने..
ऐसा क्या है तुम में
अम्बर पर छा जाते हो
पीयूष की निर्मल बूंदे
सप्तरंग दिखलाने...
बेहाल बदरंग जिंदगी
सजग हो जाती है
झूमती गाती संवर जाती
तड़ित नृत्य दिखलाने..
कहो..कौन हो तुम,
कहाँ से आते हो..
निर्जीव होती धरा को
अमृत गान सुनाने...
~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
सुन्दर रचना
Post a Comment