यूँ अकस्मात् मेघ घिर आये
मेरे तो जैसे पर निकल आये
उड़ने को बेताब मेरी उमंगें
उडती हुईं सामने नज़र आये
सूरज की तपिश खो गयी
ठंडी बौछारे जिधर आये
पंछी गा रहे..मंद-मंद
शीतल पवन गुज़र आये
यूँ स्वतन्त्र लगता है मन
बचपन के दिन फिर आये
उड़ता ही, बहता ही जाता है
अल्हड कोई निर्झर आये
जेठ की दुपहरी में सावन
धरा को यूँ गुलाल लगाये
झूमते इन हरियालों में
कुसुमित पल्लव निखर आये
कुछ चाहने का मन क्यों करे
यूँ अकस्मात् जब ...मेघ घिर आये
~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०
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1 comment:
कुछ चाहने का मन क्यों करे
यूँ अकस्मात् जब ...मेघ घिर आये
सुन्दर प्रस्तुति ........एक अच्छी पोस्ट ..बधाई स्वीकारे http://athaah.blogspot.com/
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