बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर में ,
हर चीज़ अब बदली बदली नज़र आती है..
मुझे देख जो खिलखिला पड़ता था,
बेहिचक बिन बंधन भगा ले जा पड़ता था...
कहीं अकेले में, अटारी पर, छत पर बातें करता था...
साथ रहता था, किसी से मिलने ना देता था...
अट्टू खेला, लंगडी खिलाई, ताश की महफिल सजाई...
हार जीत की बात कहाँ, बस थी तो मनाई-रुठाई...
मैं बोलता जो किसी से, उसके होंठ बुदबुदाते थे,
मैं हंस कर देखता, वो त्योंरीयां चढाते थे ...
मेरी दाल में नोन, सब्जी में मिर्ची हुआ करती थी ,
और उसको ही पानी का गिलास, गुड की ढिलिया मिला करती थी ...
छुप छुपाते देर रात तक चाँद-तारे निहारना ,
और उनींदे सुबह सुबह पानी भरने जाना ,
वो अमराई की मस्ती के लिए, लोगो को बहलाना
और कुछ ना सूझे तो, मन्दिर ही ले जाना
आज जब आया हूँ, तो उसकी खामोशी ही सुन पाया
या कहीं दूर से, मुरझाई छवि ही देख पाया
थोडी हिचकिचाहट के साथ वो नमस्कार कर चला गया ..
और इन आंखों में बसे वो फीके रंग, फ़िर भर गया ..
दिल में इक टीस उठी, सारा फरक समझ में आया...
मैं दूर रहकर भी अपना हुआ, वो साथ रहकर पराया ..
भौतिकता जब संबंधो की सीढी बन जाती है...
निश्छल हार्दिक रिश्तों की ये, पीढा बन जाती है...
अब हम लोगो में आज इक यही बहुत बड़ा अन्तर है...
मैं कही दूर बैठ, पुराने पन्नो को पलटता हूँ, जोड़ता हूँ
और वो इक इक करके, फाड़ता चला जाता है ...
हवा में उडा उडा कर ,
मुझसे भी आगे ....मुझसे भी दूर...जाना चाहता है...
~!दीपक
३० जनवरी २००९
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1 comment:
Bahut bahut sundar Deepak bhai!
Likhte rahiye :)
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