Friday, January 30, 2009

इक सूखे दरख्त का दर्द बस इतना ही है

छोटी पर संपूर्ण लगती हैं....कुछ आगे लिख ही नही पाया...

कभी कभी वो मुझे, यू भी बुलाते रहे...
जैसे शुष्क आंखों में नमी की, दरकार मुझसे थी...
और कभी कभी वो मुझसे यू भी छुपाते रहे...
जैसे खारी झीलों में बरबस, बरसात मुझसे थी...
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इक सूखे दरख्त का दर्द बस इतना ही है...
कि कोई पंछी अब उस पर, घर बनाता नही...
हरे भरे दरख्तों से बस जलन इतनी ही है...
कि पतझड़ भी अब, सालों साल आता नही...
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किलकारियां जब गूंजती है, संगीत कौन सुनता है
मासूमियत जब मिलती है, इंसानियत कौन चुनता है...
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जो आगाज़ किए बिना ही, अंजाम की बात करते है...
ऐसे नादां दोस्त मुझे, परेशान किया करते है ..

~!दीपक
शायरी २००८

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