Monday, February 23, 2009

शायरी २००८

वो मुझे झील में अपना प्रतिविम्ब दिखा रहे थे....
एक सूखी टहनी अकस्मात गिरकर, चेहरा दिखा गयी...
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हवा में ही चिरैयों के पर ना गिना करो...
आजकल दानापानी ठीक ठाक नहीं मिलता...

..उन लोगो के लिए जो लिफाफा देखकर ही ख़त पढ़ लेते है...
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क़यामत की रात में कायनात मिट गई॥
हम मिट गए, हमारी ख़ाक मिट गई...
तेरा नाम न मिटा...क़यामत की रात मिट गई...
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मोहब्बत सिर्फ़ परवाने की ही है ...
शमा तो कभी, बुझती नही है...
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जो कुछ भी ना कह पाया हो, उसको खामोशी नही कहते
एक बात छोड़, सब कह पाया हो, खामोशी उसको कहते है...
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तबियत से जला साहिबा, क्यूँ धुंआ करती है...
दो जून खिला के देख, ये आग..ठंडा करती है....

~!दीपक
शायरी २००८

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