Tuesday, April 14, 2009

लाचारी

एक कविता, १७-सितम्बर-१९९५ की लिखी हुई...१४ साल पहले...आज भी सटीक है...कुछ भी नही बदला...

लाचारी यह जनता की नही,
लाचारी यह उसके मन की है॥
मैं तो यही कहूँगा भाई,
यह जनता बड़ी सनकी है॥

तानाशाहों को हराने का सामर्थ्य रखती,
फ़िर भी आगे कदम न बढाती है॥
आहें भरकर जीती - मरती,
सारे देश को रहती सड़ाती है॥

चिकनी-चुपड़ी बातों में फंसकर,
अपने पैर आप कुल्हाडी मारती है॥
सर्वशक्तिशाली होकर भी,
कुछ लोगो के हाथों हारती है॥

मैं तो ख़ुद जनता में हूँ,
मुझे जनता से बैर नही॥
जिसदिन ख़ुद को जान ले जनता,
उस दिन इन तानाशाहों की खैर नही॥

~!दीपक
१७-सितम्बर-१९९५

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