आजकल का जो राजनीतिक माहौल देश में चल रहा है, जो परिदृश्य दिख रहा है, उस पर बहुत हसी भी आती है, रंज भी होता है, दुःख भी होता है, और फिर ये अनुभूति होती है कि ठीक है ५ सालों में एक बार तो ऐसा कुछ नाटक होना ही चाहिए
आजकल लोग बहुत कुछ लिख रहे, हमसे भी कहा गया कि भाई आप इतना लिखते है, समझ रखते है तो फिर अपनी राय आगे क्यों नहीं रखते मै हर बार मुस्कुराकर ही रह गया कान पकड बैठा रहा, कि फोकट में गालिया पड़ जायेगी नाम ख़राब कौन करे
मै ठहरा छोटा सा, कभी भी ख्यात ना होने की इच्छा रखने वाला कवि, जो सोचता है समझता है, वस्तुस्थिति के हिसाब से नाप तौल कर अपने ही अंदाज़ में कुछ लिख देता है हिंदी प्रेमी है, सो शुद्ध हिंदी ही लिखता है, ऊपर से ठहरा अंतर्मुखी, आलोचनाओ से डरने वाला, इतना डरने वाला कि कभी प्रशंसा कि उम्मीद भी नहीं करता अब आज के दौर की अंग्रेजी पसंद नौजवानों को शायद ही मेरा लेख पसंद आये पसंद क्या, वो शायद ही पढ़े, और पढ़े तो उनको हिंदी समझ आने से रही पर शुद्ध अंग्रेजी भी किसी को ही आती है, शुद्ध लिखी तो वो भी दिमाग से ऊपर जायेगी तो बस हिंग्लिश (हिंदी और अंग्रेजी की खिचडी) ही बचती है...GEN X...वो भी गयी...GEN Y शायद सब कुछ हिंग्लिश जैसा ही करना चाहती है..आखिर अब यही तो बचा है...पूरी आज़ादी बिना जिम्मेदारी के, बिना सोच के...
खैर मै काफी पका चुका हूँ, और लेक्चर देने का मूड मेरा भी नहीं है ऊपर से लिखना भी मुझे आज की राजनीति पर ही है तो सबसे पहले तो मै यही अर्ज करूंगा, अपील नहीं, क्योकि थोडा इमोशनल टच बहुत जरूरी है अपील वैसे भी हर कोई कर ही रहा है
वोट की अहमियत आज हर किसी को तो समझती ही है, कुछ नहीं तो एक रात की दारु का इंतजाम, कड़ी धूप में लाइन लगाकर कुछ टाइम पास (हमारी सरकार आज भी इस से बेहतर इंतजाम नहीं कर पायी), ऑफिस से एक दिन की या कुछ घंटो की छुट्टी, पढाई का सत्यानाश, exams के postponement, फ्री का तमाशा, गाना बजाना, मिर्च मसाला, गॉसिप...जितना सोचो, उतना मिलेगा
पर इन सबके लिए जिम्मेदार हम जनता ही है, सरकारे, नेता नहीं अगर हम उनको स्वार्थी कहते है, और कहते है कि कुछ नहीं करने वाले, तो हम भी कम स्वार्थी कब रहे? हमेशा छोटे छोटे फायदे ही देखे है और वोट दिया या नहीं दिया है चुनावों को, नेतागिरी को धंधा बनाने में हमारी भूमिका, रोल उतना ही रहा है, जितना की नेताओ का उन्होंने बड़े बड़े फायदे उठाये, हमने छोटे छोटे पर राजनीति को धंधा बनाने में पूरा पूरा सहयोग हमी ने दिया है वो भ्रष्टाचार करते है, तो हम कालाबाजारी से खुश रहते है
फिर कभी भी हमने नेताओ से जिम्मेदारी की बात तो की नहीं बिजली नहीं, सड़क नहीं, पानी नहीं, तो नहीं सही, काम चल रहा है ना, बहुत है हाँ, हिन्दू-मुसलमान की बात हो, आपस में लड़ने की बात हो, मिर्च मसाले की बात हो तो चस्का लेकर सुन ने का
इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो हमारे देश का मीडिया ही है, आखिर धंधा है जो लोग देखना सुनना चाहते है, वोही दिखायेगा ना तो वही सब दिखाता भी है, बातें भी वही सब करता है, बेशर्मी की हद नहीं बची, टीवी देखो, नेट पर पढो...कामन सेंस भी नही बचा जो चीजे नहीं दिखाना चाहिए वो भी दिखा डालते है पर वो सब बातें नहीं करते, जो दिमाग पर जोर डाले क्यों...क्योकि कोई सुनना कहाँ चाहता है वो सब, ज्ञान नहीं मनोरंजन चाहिए हर किसी को हर जगह, हर पल, चाहे फिर बातों में दम हो या नहीं, मुद्दा हो या नहीं
चुनावों में भी देख ले तो दिखता है कि फ़िल्मी सितारे, क्रिकेटर आज सबसे अच्छे नेता बन सकते है भीड़ खिची चली आती है, लोग करिश्मों की उम्मीद उनसे रखते है कि असल जिंदगी में भी फिल्मो जैसा ही काम करेंगे और सब परेशानियां छू-मंतर कभी किसी पड़े लिखे नौजवान को या उद्योगपति को, समाजसेवी को, सरकारी ओहदों पर काम कर चुके अफसरों को(काम कर चुके लिखा है, सिर्फ सरकारी अफसर नहीं) उतनी जल्दी टिकट नहीं मिले जितने इस सितारों को मिल गए उन लोगो को नहीं मिले, जो सचमुच बदलाव ला सकते है...तो कुल मिलाकर ये चुनाव मजे लेने के लिए है, मजे लो
फिर चाहे जूते उछाल उछाल कर लो, मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधान मंत्री बता कर लो, पप्पी झप्पी लेकर लो
मै मनमोहन सिंह की बात करता हूँ पहले बन्दा शरीफ है, काम करने वाला है, राजनीति करने वाला नहीं शर्मीला है, तो कभी लाइमलाईट में आता भी नहीं आज कमजोर प्रधानमंत्री बन कर रह गया पर मुझे नहीं लगता MMS कमजोर रहे, मुझे लगता है मजबूर प्रधानमंत्री ज्यादा रहे पर गठबंधन सरकारों का यही चलन है, काम कम समझौते ज्यादा होते है ऊपर से ऐसी पार्टी जहाँ सिर्फ एक परिवार विशेष की योग्यता ही प्रधानमंत्री के लायक है बाकी तो सब ऐरे गैरे, नत्थूखैरे है अब मालकिन ने काम भी दिया तो उस पद पर काम करने के लिए बहुत लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने बस परिवार की सेवा करके ही वो हक हासिल कर लिया था MMS को अचानक ये सब मिल जाना, किसी को पचा नहीं होगा, और परेशानी हर किसी ने पैदा की है, चाहे वो पार्टी के अन्दर से हो, या बाहर से विपक्ष का रोल तो बस विरोध करने का ही रहता है, फिर चाहे काम प्रशंसा योग्य हो या नहीं वैसे भी काम करने वाले काम ही करते रह जाते है, दिखा नहीं पाते MMS के कुछ ऐसे लोगो ने भी मंत्री पद सम्हाला, जिसमे उन्होंने काम उतना नहीं किया जितनी वाहवाही लूटी किसी को तो सौभाग्य वश पूर्वरती मंत्री के कामो का ही श्रेय मिल गया MMS इस मामले में लकी नहीं रहे वो एक मजबूर प्रधानमंत्री रहे जिसकी मजबूती बस एक बार ही नज़र आई, वो भी जब परमाणु समझौता हुआ तब
अब बात करते है मोदी साब की बहुत ही संवेदनशील है इस आदमी के बारे में बात करना, पर मै इनका मुरीद हूँ तो बस इसलिए कि काम करते है विगत वर्षो में दंगो के मामलों में जितने सुर्खियों में मीडिया ने, नेताओ ने उनको जितना चर्चा में रखा, उनके काम के लिए बिलकुल भी नहीं पर ये काम करते है, दम ठोक कर करते है, और कम से कम गुजरात एक ऐसा राज्य है जहाँ लोग उनके पीछे है गुजरात आज अकेला ऐसा राज्य है, जहाँ विकास हो रहा है सुनाई नहीं, दिखाई दे रहा है पिछले एक दशक को देखे तो गुजरात में विनाशक भूकंप आया, बाढ आई, दंगे हुए, पर उसका असर तो मानो कुछ हुआ ही नहीं अगर ये सब नहीं होता तो गुजरात ना जाने कहाँ होता प्रशासन की दक्षता तो बस इसी से ही दिख जाती है, जिस प्रकार नैनो का सयंत्र गुजरात में १० दिन अन्दर आ गया महाराष्ट्र में टाटा का संयंत्र बहुत पहले से है, आन्ध्र, कर्नाटक बहुत तेजी से आगे आये पर गुजरात ने कब बाजी मारी पता भी नहीं चला बंगाल से विदाई की बातों के खत्म होने से पहले गुजरात में संयंत्र लगने की खबरों से समाचार पटे हुए थे रही बात साम्प्रदायिकता की, गुजरात में आज ऐसा कोई भेदभाव तो नहीं दिखता योग्यता पर आज राज्य का मुख्य पुलिस अधिकारी एक मुस्लिम है बेहतर हो अगर मै कहूं कि उसकी जात मुस्लिम है, ईमान हिन्दुस्तानी है साम्प्रदायिकता सिर्फ विरोधी नेताओ कि आवाजों में ही है, और गुजरात के बारे में ये बातें दूसरे राज्यों में ज्यादा होती है, बनिस्बत गुजरात में होने के
बाकी तो इस बार दूसरे ऐसे कोई मुद्दे है ही नहीं, जिन पर बात भी की जाये बस मजे लो, क्योकि चुनाव तो खत्म हो ही चुके सरकार तो मिली जुली ही बनेगी और पार्टियों से समझदारी की ऐसी कोई उम्मीद नहीं रखता कि वो भेदभाव मिटा कर "पार्टियों की नहीं, बल्कि उन लोगो को मिलाकर सरकार बनाए, जो सचमुच काम कर सके" फिर चाहे सरकार में प्रधानमंत्री MMS हो, उद्योगमंत्री मोदी साब हो
जिस सरकार में कुछ ऐसे कड़े फैसले लेने की हिम्मत हो जो देश का भविष्य जातिवाद, धर्मं, आरक्षण से ऊपर उठ कर तय कर सके मूलभूत सुविधाओ के साथ जो ऐसा वातावरण भी दे सके ताकि कल भारत की प्रतिस्पर्धा के लिए भी दूसरे देश आपस में प्रतिस्पर्धा करे आज जब चीन और दूसरे देश हमें टक्कर देने की सोच रहे है, कोई आतंक फैलाना चाहता है, हम आपस में लड़ बिलकुल नहीं सकते
इतना तो कम से कम मै चाहता ही हूँ कि अगले चुनावों में कुछ नए कड़े नियम जरूर लागू हो, जैसे कि नेता की उम्र, काम का तजुर्बा, इमेज, शिक्षा आदि आदि जो एक आम आदमी पर एक साधारण सी नौकरी पाने के लिए भी लागू होती है मतदान सुलभ हो और हर कोई मत दान कर से, फिर वो चाहे कही ही बैठा हो, काम कर रहा हो पार्टियों में सितारे नहीं, जमीनी कार्यकर्ता को टिकेट देने की चाह हो और मीडिया उन बातों को मुद्दा बनाये जो जरूरी है, ना कि सिर्फ मिर्च मसाला दिखाए मीडिया चुनावों के पहले कार्यक्रम चला कर मुद्दे उठा सकता है, मुद्दे बना सकता है लोगो को इतना बता सकता है कि वो वोट कहाँ और कैसे दे सकते है अगर कोई झूठ बोल रहा है, तो मीडिया क्यों पर्दाफाश नहीं करता जैसे कि कांग्रेस सीधा सीधा बोलकर वाजपेयी सरकार के उस निर्णय की निंदा कर वोट मांग रही है जब आतंकवादी को छोड़कर लोगो को छुडाया गया थाऐसे निर्णय सर्वसम्मति से स्थिति को ध्यान में रखकर लिए जाते है हर कोई शामिल होता है फिर चाहे वो अडवानी क्यों ना हो, कांग्रेस क्यों ना हो
और ऐसी स्थिति ना आये, इसके लिए आतंकवादी को जिंदा क्यों रखते है हम वो इतने सख्त है जिनको जान जाने का डर नहीं होता, वो अगर कुछ नहीं बताना चाहते तो नहीं ही बताएँगे कसाब को कैद में रखने का खर्च जितना होगा, उतने में कम से कम चार पांच शहर तो अब तक आबाद हो चुके होते नहीं बता रहा है, तो दे दो सेना को और मार डालो आतंकवादियों के लिए भारत स्वर्ग से कम नहीं, जितना आतंक फैलाना है, फैलाओ, मारे गए तो मर गए, पकडे गए तो जेल के सुख कुछ होना नहीं है, आज नहीं तो कल छूट जाने के चांस भी है पकडो मत, मार डालो...उनका कोई धर्मं नहीं है, ना ही किसी बात का डर है, ना ही वो इंसान है
आखिरी में, मेरी अर्ज तो यही है कि वोट तो दे ही दो, चाहे किसी की भी सरकार बने कोई फर्क आज पड़े या ना पड़े इतना डर ही काफी होगा कि कल नेता वोट मांगने सोच समझ कर आयेगे फर्क हमने पैदा करना है, नेताओ से काम कराना है, उन्हें जिम्मेदार बनाना है १० दिन खूब ख़ुशी मनाइए अपने मनपसंद प्रत्याशी के जीतने का, पर ग्यारहवे दिन से हिसाब लेना भी शुरू कीजिये कि काम क्या कर रहे हो, रिपोर्ट क्या है? नौकरों से हिसाब न लो तो बेईमान गैरजिम्मेदार हो जाते है वैसे ये चुनाव काफी निर्णयकारी और युगांतर हो यही कामना करता हूँ बहुत कुछ जागरूकता आई है, बहुत कुछ आनी बाकी है कम से कम नेता नहीं तो हम लोग तो अगले चुनावों की तैयारी कर ही सकते है
~!दीपक
२७-अप्रैल-०९
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1 comment:
sahi hai boss jitni tarif likhungi utna hi kam hai ikdum reality......
kahan se late ho itna dimak
keep it up...
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