Thursday, September 30, 2010

हे भव्य अयोध्या! तू बता...

हमने सुना था तेरी धरती में सीता मैया समाई थी..
फिर राम-रहीम की चिंगारी किसी ने सुलगाई थी..
हे भव्य अयोध्या! तू बता..तेरे गर्भ में कौन है,
सरयू की धाराएं तो पहले ना कंपकंपाई थी...

क्यूँ हर किसी को, तुझ पर हक जताना है,
क्या तूने कभी अपनी इच्छा ना जताई थी??
कैसा लगता है जब हर कोई तुझे कपडे पहनाता है,
क्या तू अपनी ओढ़नी कही छोड़ आई थी???

किसी को गर सुनाना है, तू अपनी बात सुना
हर किसी की जुबाँ ने तेरी अफवाहे सुनाई थी..
अब भी खेलेंगे तेरी छाती से काफिर..
मंदिर-मस्जिद से जिसने आस्था चुराई थी...

राम तुझमे जन्मे, रहीम तुझपर पले...
तेरी ही पूजा पर किसी ने ना कराई है...
गर कुछ बनाना ही पड़े तो तेरा मंदिर बने..
एक तेरी ही आत्मा युग युग से समाई है...

~!दीपक
३०-सितम्बर-२०१०

Saturday, July 10, 2010

गर मैं अभी वही हूँ, तो दुनिया कैसे बदली

थाम लेता डोर को तो, वो समय ना जाता...
आज इंतज़ार क्यूँ करूं जो वापस नही आता
मेरे पैरों में तो ताकत है, मन को समझाना है
मैं ही चला जाऊ, गर वो नही आता...

गर मैं अभी वही हूँ, तो दुनिया कैसे बदली
कोई भेद होता, तो शायद इसे समझाता
उसके पलट जाने का क्यों मैं खेद रखूँ
अब उसके दांत नही, इसलिए नही मुस्कुराता..

~!दीपक
१०-जुलाई-२०१०

Thursday, May 20, 2010

क्यों मुझे सता तेरा सवाल रहा...

रात भर सताता एक सवाल रहा
नींद ना आई, आपका ख्याल रहा
एक जिद सी थी तुम्हे पाने की
तुम्हारा वो डर, किये बेहाल रहा

छोटी सी एक बात कितनी बड़ी हुई
तूफ़ान जिसके सामने निढाल रहा
कातिल नज़र आये हर तरफ घूमते
बीच मैदान मै खड़ा, होता हलाल रहा

प्यार में डर आखिर होता क्यूँ है
क्यूँ निर्भीक नहीं इसे संभाल रहा
मंजिले जो पानी थी वो पा गया
क्यों मुझे सता तेरा सवाल रहा

छोड़ ना जाना कि बस में नहीं मै अब
कटी पतंग में नहीं कोई कमाल रहा
थाम लेना डोर तुम अपने हाथों में
भटका देगा मुझे जो तेरा सवाल रहा


~!दीपक
२०-मई-२०१०

Thursday, May 13, 2010

वो शिकवा भी करते है और इंतज़ार भी..

वो शिकवा भी करते है और इंतज़ार भी
खुदा से दुआऐ मांगते, रहते है बेक़रार भी

हमसे मिलना भी नहीं और जुदा रहना नहीं
मुहब्बत की नेम बख्शी, पानी भी आग भी

दिनों को गिना करते हैं राते कटती नहीं
फकीर से आज़ाद भी इश्क के बीमार भी

लौटकर आ जाते है छोड़कर जाते नहीं
साहिल की लहरें भी, और पिंज़रेदार भी

रुख्सत कर दे शख्सियत जहां से मेरी
एक मेरी जान भी, और तेरी याद भी

~!दीपक
१३-मई-२०१०

हाँ, हम कविता करते है....

जीवंत क्षण चित्रित कर
पीयूष तत्व से भरना
सत्वों से पर रचते है
तत्व साकार करते है

सृष्टिकर्ता सी अनुभूति...
ईश्वरीय स्पर्श सी कृति
दृष्टि में सृजन रखते है
शब्दों से रंग भरते है

केवल कविता नहीं है..
दर्शनीय श्वास-छंद है
यम से द्वन्द करते है
उत्कर्ष प्रचंड करते है

उत्सवों के उल्लासों में
युद्ध में मिली विजय नहीं
हलधर के स्वेत झरते है
स्नेह कुमुद खिरते है

ये कोर कल्पनाएँ नहीं
विनाश की छटाएं नहीं
दीप से दीप जलते है
उज्जवल आलोक बनते है

खुद को जन्मते रहना
सुरभित सुमन मंडल सा
रक्तबीज से उभरते है
हाँ, हम कविता करते है....

~!दीपक
१३-मई-२०१०

तुम छुपोगे, मै निकाल लाऊंगा...

ये आया मै, संभालो मुझे
देखे कितनी गहराई है तुझमे
तलहटियों तक डूबके देखूंगा
कितनी फिसलन है उसमे

तुम कहाँ पर छुपोगे...
सोचकर कि मै ना आऊंगा
ये तो दरिया है पानी का
तुम छुपोगे, मै निकाल लाऊंगा...

~!दीपक
०८-मई-२०१०

गर हराना है तो तुम्हे हराया जाये...

क्यूँ ना कुछ मछरियाँ पकड़ी जाए
क्यूँ ना पानी में घात लगाईं जाये
या प्रतिबिम्ब से ही खेला जाये
या बस यूँ ही छलांग लगाईं जाए

मगर का शिकार भी कर ले आज
चलो कुछ अनोखा आजमाया जाए
तुम तपते रहो दिवाकर...
गर हराना है तो तुम्हे हराया जाये

~!दीपक
०६-मई-२०१०

Friday, April 30, 2010

कहो..कौन हो तुम...

धूमिल होती आशाओं को
सपना सुनहला दिखलाने...
कहाँ से आये मन रसिया
मलय गंध बिखराने..

तपती हुई मरू भूमि में
मृग-तृष्णा से तरसाती
प्रखर सूर्य की ओजस्वी
किरणों से टकराने..

ऐसा क्या है तुम में
अम्बर पर छा जाते हो
पीयूष की निर्मल बूंदे
सप्तरंग दिखलाने...

बेहाल बदरंग जिंदगी
सजग हो जाती है
झूमती गाती संवर जाती
तड़ित नृत्य दिखलाने..

कहो..कौन हो तुम,
कहाँ से आते हो..
निर्जीव होती धरा को
अमृत गान सुनाने...

~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०

Thursday, April 29, 2010

मेघ तुम क्यूँ आये....

मेघ तुम क्यूँ आये....
आक्रोश कुछ तपने तो दिया होता.
दलदल सा जीवन फटने तो दिया होता..
हरी भरी खुशियों को पकने तो दिया होता!!!

यूँ चले आना तुम्हारा..अकस्मात्
षड़यंत्र कोई गहरा सा लगता है
कौतुहल से भरा संदेशा लगता है
क्रांति सा कोई अचम्भा लगता है

प्रियतमा की तड़प लगती है
पपीहे की चहक लगती है
गर्म लू से हिलती डंठलों को
आषाढ़ की झलक लगती है

कुटिया में वैभव शोभा नहीं देता
महर्षि-अप्सराओं का संगम ना दिखलाओ..
सच्चे मन से पूछता हूँ...
यूँ चले आने का कारण तो बतलाओ...

ये सच है प्रार्थना बहुत की है प्रभु से
पर ऐसी कृपादृष्टि अनायास नहीं होती
संघर्षरत हूँ, यूँ मन ना बहलाओ
कुछ क्षणों की ख़ुशी का रहस्य समझाओ..

मेघ तुम क्यूँ आये..सावन अभी दूर है
मै चला आऊंगा, संशय में ना रहो
मै तपता हुआ पुंज हूँ, सावन खींच लाऊंगा
तुम धमाधम बरसने की तैयारियों में रहो...

~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०

यूँ अकस्मात् मेघ घिर आये

यूँ अकस्मात् मेघ घिर आये
मेरे तो जैसे पर निकल आये
उड़ने को बेताब मेरी उमंगें
उडती हुईं सामने नज़र आये

सूरज की तपिश खो गयी
ठंडी बौछारे जिधर आये
पंछी गा रहे..मंद-मंद
शीतल पवन गुज़र आये

यूँ स्वतन्त्र लगता है मन
बचपन के दिन फिर आये
उड़ता ही, बहता ही जाता है
अल्हड कोई निर्झर आये

जेठ की दुपहरी में सावन
धरा को यूँ गुलाल लगाये
झूमते इन हरियालों में
कुसुमित पल्लव निखर आये

कुछ चाहने का मन क्यों करे
यूँ अकस्मात् जब ...मेघ घिर आये

~!दीपक
३०-अप्रैल-२०१०

Saturday, February 27, 2010

गांधीजी के तीन बन्दर

गांधीजी के बंदरों पर जब हमने डाला रंग...
बिदक गए और बोले क्यों ध्यान किया भंग..

बोले हम, थोड़ी ठंडाई लाये है, ले लो..
अपनी तन्द्रा के, कुछ तो राज़ खोलो..

वे बोले भैया, इसमें क्या राज़ है..
विकास दर देखो, १०० रुपया किलो अनाज है..

बापू ने बस हमको तमाशबीन बनाया..
वो बिलकुल ना देखना, जो मन को ना भाया
बुरा हुआ तो भी चुप्पी साधे बैठो..
बुरा ना सुनने का बहाना लेकर, कान ऐंठो..

होली में कम से कम, सांकेतिक बुराई तो जलाते हो...
क्या बुरा करते हो, जो गांधीजी के बन्दर बुलाते हो|

~!दीपक
२८-०२-२०१०

Sunday, January 17, 2010

शायरी २०१०

हटा लो जुल्फों को, डूबते का सहारा ना बनेगी ये...
आँखों में गर कोई उतरे,  तो डूबे तो सुकून से...

जो रूखा रूखा सा मिलता था कभी.. दिन हुए उसकी शक्ल नहीं देखी...
महफ़िलों में रहा, मंजिलो के बिना... जिस पर चला, वो राह नहीं देखी...

मुस्कुराने के बहाने और भी मिलेंगे...
हमे भूल जाओ, लोग और भी मिलेंगे....

साहिल से दोस्ती ही तो निभाती है लहरें..
प्यार सागर से किया उसी में समाती है लहरें...

प्यासों को याद, गाँव का निर्झर आया,
प्यासों के साथ, पापी शहर आया|

इस बारिश में धो डालते जुम्बिशे अपनी...
क्या करे कि इस बरस, पानी नहीं बरसा..

~!दीपक
२०१०